Wednesday 4 September 2013

बच्चों का व्यक्तित्व विकास कैसे हो

बच्चों का व्यक्तित्व विकास कैसे हो
बच्चों का व्यक्तित्व विकास कैसे हो





मूल्य
9.95  



प्रकाशक
दृष्टि प्रकाशन
आईएसबीएन
81-89361-13-9
प्रकाशित
मार्च २०, २००७
पुस्तक क्रं
:
4887
मुखपृष्ठ
:
सजिल्द

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बालक ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। उसके विकास के लिए घर में माता-पिता, विद्यालय में शिक्षक और समाज की हर इकाई, बालसेवी संस्थाएँ एवं प्रेरक साहित्य की संयुक्त भूमिका है। इनमें से एक की भी भूमिका विघटित होती है तो बालक का सामाजिक दृष्टि से विकास अवरुद्ध हो जाता है और व्यक्तित्व कुंठित।

हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है, जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है। क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिससे मूर्ति ढकी होती है, एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता, शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।
अपनी बात
अड़तीस वर्षों से निरंतर अध्यापन कर रही हूँ जिसे अपना परम सौभाग्य व ईश्वर का वरदान मानती हूँ। इन वर्षों में मैंने बहुत कुछ देखा, सोचा-विचारा, जाना समझा। युवा होते बच्चों से परिचय हुआ। उनके बचपन में लौट कर झाँका। एक अभिभावक के रूप में भी जब स्थितियों को जाँचा-परखा तो पाया कि बच्चों के लालन-पालन में हमसे कहीं कमी रह जाती है। कहीं हम उन्हें अति सुरक्षा प्रदान कर उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में बाधक बन जाते हैं तो कहीं जरा-जरा सी गलती पर उन्हें अपमानित दंडित और प्रताड़ित कर उनके आत्मविश्वास को खंडित करने की भूल कर जाते हैं।

अपनी व्यस्तताओं में घिरे उनके मानसिक, बौद्धिक, रचनात्मक क्षमताओं को पहचाने की चेष्टा ही नहीं करते। अपनी इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और सपनों को उन पर थोपने की भारी गलती कर बैठते हैं। उनके विचारों एवं रुचियों को सम्मान नहीं देते। उनके बाल-सुलभ क्रिया-कलापों पर हर समय रोक लगाते हैं। कड़ा अनुशासन रखते हैं। हमें चाहिए बाल-मनोविज्ञान को समझें और उन्हें एक सफल व्यक्तित्व का स्वामी बनाएँ।

बालक ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। उसके विकास के लिए घर में माता-पिता, विद्यालय में शिक्षक और समाज की हर इकाई, बालसेवी संस्थाएँ एवं प्रेरक साहित्य की संयुक्त भूमिका है। इनमें से एक की भी भूमिका विघटित होती है तो बालक का सामाजिक दृष्टि से विकास अवरुद्ध हो जाता है और व्यक्तित्व कुंठित।

परिवार यानी माता-पिता बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण की पहली पाठशाला है। उसमें भी माँकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। अगर माता-पिता अपने बालक से प्रेम करते हैं और उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं, उसके प्रत्येक कार्य में रुचि लेते हैं, उसकी इच्छाओं का सम्मान करते हैं तो बालक में उत्तरदायित्व, सहयोग सद्भावना आदि सामाजिक गुणों का विकास होगा और वह समाज के संगठन में सहायता देने वाला एक सफल नागरिक बन सकेगा। अगर घर में ईमानदारी सहयोग का वातावरण है तो बालक में इन गुणों का विकास भलीभाँति होगा, अन्यथा वह सभी नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर मनमानी करेगा। और समाज के प्रति घृणा का भाव लिये समाज-विरोधी बन जायेगा।

बच्चों का नैतिक विकास उसके पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन से संबंधित है। जन्म के समय उनका अपना कोई मूल्य, धर्म नहीं होता, लेकिन जिस परिवार/समाज में वह जन्म लेता है, वैसा-वैसा उसका विकास होता है।

शिक्षालय के पर्यावरण का भी बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। उसका अपने शिक्षक तथा सहपाठियों से जो सामाजिक संबंध होता है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्यार करना चाहिए। शिक्षक जब बच्चों को प्यार करता है, अपना हृदय उन्हें अर्पित करता है, तभी वह उनमें श्रम की खुशी, मित्रता व मानवीयता की भावनाएँ भर सकता है। शिक्षक को बाल हृदय तक पहुँचना है। उनकी हित-चिंता उसका महत्त्वपूर्ण कार्य-भार है। वह ऐसा वातावरण बनाए विद्यालय घर बन जाए।

जहाँ भय न सौहार्द हो। केवल तभी वह बच्चों को अपने परिवार, स्कूल और देश से प्रेम करना सिखा सकेगा, उनमें श्रम और ज्ञान पाने की अभिलाषा जगा सकेगा। बाल हृदय तक पहुँचना यही है। शिक्षण का सार है-छात्रों और शिक्षकों के मन का मिलन। सद्भावना और विश्वास का वातावरण। परिवार जैसा स्नेह और सौहार्द।

बच्चों के प्रकृति-प्रदत्त गुणों को मुखारित करना, उनके नैतिक गुणों को पहचानना और सँवारना, उन्हें सच्चे ईमानदार और उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान नागरिक बनाना शिक्षक का ध्येय है।

हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है, जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है। क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिसमें मूर्ति ढकी होती है, एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।

व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम (Heredity) तथा परिवेश (Environment) दो प्रधान तत्त्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है, वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है, जिसमें वह बड़ा होता है, व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

आज समाज में जो वातावरण बच्चों को मिल रहा है, वहाँ नैतिक मूल्यों के स्थान पर भौतिक मूल्यों को महत्त्व दिया जाता है, जहाँ एक अच्छा इंसान बनने की तैयारी की जगह वह एक धनवान, सत्तावान समृद्धिवान बनने की हर कला सीखने के लिए प्रेरित हो रहा है ताकि समाज में उसकी एक स्टेटसबन सके। माता-पिता भी उसी दिशा में उसे बचपन से तैयार करने लगते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं का अधिक से अधिक अर्जन ही व्यक्तित्व विकास का मानदंड बन गया है।
आत्म-संयम, सेवा भावना, कर्तव्यबोध, श्रम, त्याग, समर्पण आदि गुणों के तन्तुओं से बना सादा जीवन उसका आदर्श नहीं रहा। आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को सही प्रेरणा, सही मार्ग-दर्शन व सही परामर्श के साथ स्वस्थ पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण मिले। शिक्षा संस्थाओं की भी यह जिम्मेदारी है कि वे बालकों और किशोरों की ऊर्जा व क्षमता को सही रचनात्मक दिशा दें। ताकि वे भौतिक व आत्मिक विकास में संतुलन बनाने की कला सीख सकें।

सन् 1979 में अन्तर्राष्ट्रीय बालदिवसकी घोषणा हुई थी। उसके बाद दुनिया भर के देशों में बाल विकास के कार्यक्रमों में तेजी आई। बालकों के प्रशिक्षण के अनेक कार्यक्रम चले। अनेक संस्थाएँ भी इस दिशा में निरन्तर कार्य कर रही हैं। अपने देश में बालभवनऔर विज्ञान प्रसारजैसी संस्थाएँ बच्चों को नई सदी के लिए तैयार करने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेभी बाल-विकास के उद्देश्यों को लेकर बनाई गई है जिसमें ग्रामीण बच्चों और विभिन्न राज्यों से व्यापक स्तर पर लड़कियों के विकास के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। यूनिसेफविश्व की सबसे बड़ी बाल-कल्याण एवं विकास की संस्था है। देशव्यापी और अंतर्राष्ट्रीय कार्यों से पूर्व पारिवारिक स्तर पर बच्चों की देखभाल उसकी शिक्षा-दीक्षा और उनकी जरूरतों को समझने की आवश्यकता और भी ज्यादी है। परिवार के बच्चे के व्यक्तित्व-विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह उसे सफल सामाजिक जीवन के लिए तैयार करता है। यह उसे प्रारम्भिक प्रशिक्षण प्रदान करता है। बच्चों के व्यक्तित्व पर सबसे पहली छाप माता-पिता की ही पड़ती है। बर्नेकहते हैं कि इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य मनुष्य के जीवन में बचपन का वह काल अपरिहार्य है, जब उसका दिमाग, ज्ञान, विचार सब कुछ उसके माता-पिता द्वारा रचा जाता है। वह माता-पिता द्वारा किए गए संस्कारों में ढल जाता है।

परिवार बच्चों को सांस्कृतिक मान्यताओं (Cultural Values) को सिखाने का माध्यम है। परिवार वह आधारभूत संस्था है जो समाज में नियंत्रण लाने का मूल स्रोत है। परिवार यानी माता-पिता। बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में संतोषजनक पारिवारिक जीवन अत्यंत आवश्यक है।

आज संयुक्त परिवार तो टूट ही रहे हैं, एकल परिवार में भी बच्चों की तरफ पूरा ध्यान नहीं दिया जा रहा। पति-पत्नी दोनों काम पर जाते हैं। नौकरों आया की कृपा पर बच्चा पल रहा है या क्रेचमें छोड़ दिया जाता है। चाहकर भी माता-पिता बच्चों पर ध्यान नहीं रख पाते। बच्चे अक्सर इन हालात में उपेक्षित हो रहे हैं और अनेक प्रकार की संवेगात्मक गंभीर समस्याओं का शिकार हो रहे हैं जो अत्यंत चिंता का विषय है। सांस्कृतिक परिवर्तन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस तरह बच्चों के

मन-मस्तिष्क को प्रदूषित कर रहा है वह भारत ही नहीं सारे विश्व के समाजशास्त्रियों एवं चिंतकों के लिए चिंता का विषय है। फिल्मों में बढ़ती हिंसा, अपराध के नए-नए तरीके क्रूरता, नफरत, भौंडा अंग-प्रदर्शन तथा केबलसंस्कृति के प्रभाव के स्वरूप विदेशी चैनल तथा विदेशी फिल्मों में परोसे खुले सेक्स द्वारा जो सांस्कृतिक अवमूल्यन का प्रचार हो रहा है क्या हम अपने बालकों को, अपनी भारतीय संस्कृति को बचाने में समर्थ हो पायेंगे। इस संबंध में एक शिक्षक एवं बाल साहित्यकार के रूप में बालकों की ये चुनौतियाँ मुझे सदा उद्विग्न और चिंतित करती रही हैं और किसी भी अभिभावक के मन मस्तिष्क को आन्दोलित करती हैं।
इनके समाधान क्या हो सकते हैं ? ये कई सवाल हैं। बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे हो ? माता-पिता शिक्षक इसमें किस प्रकार सहयोग दे सकते हैं ? तेज़ी से विकसित होती प्रौद्योगिकी और संचार क्रांति के प्रभाव से बच्चों को बचा पाना क्या संभव होगा ? आदि-आदि।
अपने लम्बे अध्यापन काल तथा अपने आसपास के सभी सम्पर्क में आने वाले बच्चों से जुड़े सामयिक प्रश्नों के विश्लेषण से जो उत्तर सामने आए उनके अनुसार बच्चों के व्यक्तित्व की दिशा में माता-पिता, शिक्षकों, अभिभावकों को जागरूक बनाना है। साथ ही बालसाहित्यकार को भी बच्चों की वर्तमान रुचि को देखते हुए उनकी आवश्यकताओं और समय के अनुरूप ऐसा साहित्य तैयार करना होगा जो उन्हें दिशा दे सके।
उनमें वैज्ञानिक चेतना का विकास भी करें और मानवीय संवेदनाएँ भी जगा सके ताकि उनके चरित्र को मानवीय रिश्तों की खुशबू और बंधुत्व की भावना महका सके। हम सबके सामूहिक प्रयासों से बच्चों को भविष्य की दुनिया और समाज के साथ तालमेल बनाने और उसके अनुरूप अपने जीवन को निर्मित करने के पूरे अवसर मिलें। आइए, अपने उत्तरदायित्व को पहचानें। पोलाकने कहा है-‘‘बच्चे स्वर्ग के देवताओं की अमूल्य भेंट हैं।" इस अमूल्य भेंट की देखभाल हमें पूरे मनोयोग से करनी है। बच्चों की उन्नति में पूरे राष्ट्र की समृद्धि छिपी है।
किसी भी राष्ट्र की प्रगति ही नहीं वरन्। उनका अस्तित्व भी बाल शक्ति के प्रभावशाली उपयोग में निहित है। आज के बालक जो कल के नागरिक होंगे, उनकी क्षमताओं, योग्यताओं का शीघ्र पता लगाकर उनको वैसा प्रशिक्षण देकर ऐसी दिशा में मोड़ा जाए, जिससे केवल उन्हें ही आत्म-संतुष्टि न हो वरन् राष्ट्र की समृद्धि में उनका समुचित योगदान मिल सके।
ये निबंध एक शिक्षक एवं अभिभावक के रूप में मिली कुछ सफलताओं एवं विफलताओं के निचोड़ हैं। जिन्हें आपके साथ बाँटने का प्रयास किया है।

शकुन्तला कालरा
रीडर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष 



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