Thursday 25 June 2015

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य हमने क्या खोया और पाया ? -- द्वारा -- श्री अनिल कुमार गुप्ता पुस्तकालय अध्यक्ष केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य
हमने क्या खोया और पाया ?

द्वारा

  अनिल कुमार गुप्ता
पुस्तकालय अध्यक्ष
केंद्रीय विद्यालय सीमा सुरक्षा बल
फाजिल्का

आज के वर्तमान सामाजिक परिदृश्य की ओर एक नज़र डालें  और हम ये सोचें कि हमसे कोई भूल हुई है क्या ? पर्यावरण के साथ – साथ हमने अपने सामाजिक परिवेश के साथ कोई अन्याय किया है क्या ? हमारी आवश्यकताओं ने , हमारी महत्वाकांक्षाओं ने कुछ ऐसी विषम परिस्थितियों को जन्म दिया है जिसका परिणाम हम आज भुगत रहे हैं | आज जिस वातावरण में हम जी रहे हैं क्या उसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं या फिर कोई और ? हम सोचें कि ऐसा क्या हुआ जो आज हम चिंतन के इस भयावह दौर से गुजर रहे हैं ? लोगों में बढ़ती असुरक्षा  की भावना और न्यायपालिका पर से उठता विश्वास आज हमें सोचने को मजबूर कर रहा है | समाज के ऐसे रूप की कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी जहां लडकिया असुरक्षित हैं , युवा पीढ़ी “ थोड़ा जियो खुल के   जियो “   ,
“ डर के बाद जीत “  के सिद्धांत पर जिन्दगी जी रहे हैं | “स्वाभिमान” शब्द को ग्रहण लग गया है | नैतिकता , सामाजिकता , मानवता , सहृदयता , सम्मान , मौलिकता जैसे महत्वपूर्ण विषय अब ओछे प्रतीत होने लगे हैं | कोई इस बात पर शर्म महसूस नहीं करता कि उसके द्वारा अनैतिक कार्य हो गया है | आइये देखें हमारे अनैतिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप हमने क्या खोया और पाया :-
हमने क्या खोया
जो कुछ हम बोते हैं वही काटते हैं | इस बात को हमने चरितार्थ किया है अपने कार्यकलापों से और अनैतिक गतिविधियों से | आइये हम देखें कि हमने वास्तव में क्या खोया :-
1.     सामाजिकता
2.     मानवता
3.     सहृदयता
4.     संवेदनशीलता
5.     धार्मिकता
6.     संस्कृतिक एकता  
7.     संस्कारों की पूँजी  
8.     आत्मीयता
9.     बुजुर्गों का सम्मान
10.     आध्यात्मिक चिंतन
11.     नैतिक मूल्य
12.     मरणोपरांत का स्वर्गलोक
13.     मोक्ष – उद्धार के प्रयास
14.     रिश्तों की संवेदनशीलता
15.     एक दूसरे के सम्मान की परम्परा
16.     सत्य का साथ
17.     प्रकृति का आलिंगन
18.     पुण्य आत्माओं का आशीर्वाद
19.     विश्वसनीयता
20.     संकल्प
21.     आस्तिकता
22.     आत्मसम्मान
23.     औपचारिकता
24.     भाईचारा
25.     आत्म सम्मान
26.     आध्यात्मिक ऊर्जा
27.     परमात्मा की गोद
28.     आत्मविश्वास

हमने क्या पाया
आइये दूसरी और हम देखें कि हमारे द्वारा किये गए अनैतिक प्रयासों ने हमें क्या कुछ दिया :-
1.     कुंठित विचारों की श्रृंखला
2.     केवल वैज्ञानिक विचारों का पुलिंदा
3.     असामाजिकता
4.     व्यक्तिगत अवसरवादिता
5.     भौतिक सुख में जीवन का चरम सुख खोजने का असफल प्रयास
6.     आधुनिक विचारों का धार्मिकता , सामाजिकता , संस्कृति व संस्कारों पर कुठाराघात
7.     आदर्शों को दरकिनार करने का साहस
8.     पुण्य आत्माओं को लज्जित करने का वैज्ञानिक विचार
9.     व्यक्तिवाद को प्रमुखता एवं राष्ट्रवाद को नगण्य समझने की भूल
10.      प्रदूषित पर्यावरण
11.      सामाजिकता, धार्मिकता पर वैज्ञानिक विचारों का प्रभाव
12.      चीरहरण की घटनाएं
13.      प्रदूषित सामाजिक पर्यावरण
14.      स्वयं के आत्म सम्मान से समझौता
15.      रिश्तों का अभाव
16.      परमेश्वर से दूरी
17.      आध्यात्मिकता से दूरी
18.      सामाजिकता में अवसरवादिता
19.      प्रदूषित सामाजिक पर्यावरण
20.      भौतिक सुख में चरम सुख ढूँढने का प्रयास
21.      अनैतिक विचारों का पुलिंदा
22.      अमानवीय चरित्रों का निर्माण


उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान से देखने एवं विश्लेषण करने पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आज हम जिस युग में , जिस पर्यावरण में, जिस सामाजिक व्यवस्था के बीच जी रहे हैं वहां मानव के मानव होने का तनिक भी भान नहीं होता | एक दूसरे को नोच खाना चाहते हैं | अपने अस्तित्व के लिए दूसरे के अस्तित्व को नगण्य समझ बैठते हैं | हमारे मानव होने का हमें आभास नहीं है और न ही हम जानना चाहते हैं कि आखिर किस प्रयोजन के साथ हम इस धरती पर आये | उस परमपूज्य परमात्मा को हमसे क्या अपेक्षा है | क्या हम उसकी अपेक्षा पर खरे उतरे या फिर हम यूं ही जिए चले जा रहे हैं | समय अभी भी हाथ से छूता नहीं है आइये प्रण करें कि हम एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ पर्यावरण, आध्यात्मिक विचारों के साथ इस धरती पर स्वयं को उस परमात्मा को समर्पित करेंगे | मानव हित , मानव समाज हित कार्य करेंगे और अंत तक उस परमपूज्य परमात्मा की शरण होकर अपना उद्धार करेंगे | 

शिक्षा और आध्यात्म --- द्वारा --- श्री अनिल कुमार गुप्ता पुस्तकालय अध्यक्ष केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

शिक्षा और आध्यात्म
द्वारा
  
 श्री अनिल कुमार गुप्ता
पुस्तकालय अध्यक्ष
केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

भूमिका:- शिक्षा और आध्यात्म के बीच सामंजस्य और सहृदयता के उदाहरण हमें जितना प्राचीन शिक्षा प्रणाली में विद्यमान दिखाई देते थे वो आज की शिक्षा प्रणाली में नहीं | आज की शिक्षा प्रणाली ने हमें चिंतन करने को मजबूर किया है कि हम खेलकूद और पढ़ाई के साथ – साथ आध्यात्म को भी शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना चाहिए  ताकि शारीरिक एवं मानसिक विकारों पर काबू पाया जा सके और मानसिक रूप से प्रसन्न होकर हम अपना आध्यात्मिक विकास कर सकें |  यदि हम विश्व की महान विभूतियों के जीवन का आकलन करें तो हम पायेंगे कि सभी महान विभूतियों ने शिक्षा को ऐसा सशक्त माध्यम बताया जिससे होकर मानव अपना मानसिक विकास तो करे ही सके साथ ही साथ स्वयं को नियंत्रित करने के लिए अपना आध्यात्मिक विकास भी कर सके | जीवन में अराधना का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान है | गर किसी भी कार्य के आरम्भ से पूर्व मानव परमपूज्य परमात्मा की शरण को प्राप्त होता है तो निश्चित ही कार्य में सफलता मिलती है | मन को प्रसन्न रखने , आत्मिक शांति के साथ स्वयं को इस नाशवान जीवन से मोक्ष की और प्रस्थित करना आध्यात्म का महत्वपूर्ण कार्य माना गया है | विश्व में जितनी भी महान विभूतियाँ हुई हैं उन्होंने कभी भी अपने जीवन में आध्यात्म का साथ नहीं छोड़ा | उन्होंने अपने दैनिक जीवन के अन्य कार्यों की भाँति आध्यात्म को भी अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग समझा |         
                              दुनिया में जितने भी धर्म हैं उन सभी ने मानव उत्थान की संकल्पना की और यह प्रयास किया कि मानव उत्थान को ही मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनाया जाए ताकि मानव पशु की भांति यहाँ – वहां विचरण न करे और स्वयं को अधोगति में न ले जावे और अपने आपको सर्वोच्च शिखर पर आसीन करे | आध्यात्म विषय पर की गयी शोध और वर्षों के गहन अध्ययन और विश्लेषण का परिणाम आज हमारे सामने है | हज़ारों सालों पूर्व के मानव ने स्वयं को नियमों में बांधकर , जीवन पर्यंत तपस्या कर उस तत्व को प्रतिपादित किया जिसे हम आध्यात्म की संज्ञा देते हैं | जीवन में आध्यात्म के महत्त्व के बारे में ऐसे बहुत से उदाहरण  वेदों में और हमारे आसपास के जीवन में दृष्टिगोचर हो जाते हैं जो आध्यात्म की महत्ता को बखान करते हैं | भगवान् बाल्मीकि का जीवन परिवर्तन, महात्मा बुद्ध द्वारा अंगुलिमान को मोक्ष की राह दिखाना , बाबा भारती द्वारा डाकू खड़गसिंह को सत्मार्ग दिखाना और भी ऐसे कई सामाजिक उदाहरण हैं जो आध्यात्म के महत्त्व को हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग बताते हैं |
                        प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का आधार ही आध्यात्मिकता हुआ करता था उस समय गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्रों के आध्यात्मिक विकास पर ही विशेष जोर दिया जाता था ताकि समाज को सही दिशा मिल सके | साम्प्रदायिक सदभाव बना रहे | युवा पीढ़ी अपने सामाजिक उत्थान के बारे में सोचे और एक स्वस्थ सामाजिक परिवेश की संकल्पना की जा सके | मध्यकालीन युग इस मायने में अतिभाग्यशाली रहा जब बहुत से आध्यात्मिक गुरुओं ने इस धरती पर जन्म लिया और आध्यात्म की ज्योत जलाई | इनमे मुख्य रूप से तुलसीदास, बल्लभाचार्य, रहेईम , सूरदास, कबीरदास, मलूकदास, नानक, चतुर्भुजदास, बिट्ठलदास , रामानुजाचार्य, विवेकचारी, माधवाचार्य, परमानंददास, शंकराचार्य आदि का नाम बड़े सम्मान के साथ  लिया जाता था |     
            वर्तमान शिक्षा प्रणाली का जो रूप हमारे सामने उभरकर आ रहा है उसमे धार्मिक आधार पर शिक्षा संस्थाओं की स्थापना को बल मिला | धर्मगत आधार पर अलग – अलग रूप में शिक्षा दीक्षा का कार्य किया जाने लगा जिस कारण से साम्प्रदायिक एकता पर कुठाराघात हुआ | राष्ट्र को नगण्य कर दिया गया | कुछ शिक्षण संस्थाओं का उद्देश्य  धर्म विस्तार होकर रह गया न कि मानव का सामाजिक एवं आध्यात्मिक उत्थान |
                  अलग – अलग आयोगों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में दी गयी अनुशंसायें भी अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने में असफल रही हैं | इन आयोगों द्वारा की गयी स्वतंत्रता पश्चात अनुशंसाओं का उद्देश्य शिक्षा को प्राथमिक बनाने व इसे जन – जन तक पहुंचाने तक ही  सीमित था | मूल्यों के विकास और नैतिक शिक्षा पर तो विशेष ध्यान गया ही नहीं | कोठारी आयोग ने आध्यात्मिक मूल्यों की सिफारिश तो की किन्तु आधुनिकता की और अग्रसर होते विचारों ने इन मूल्यों को कहीं पीछे छोड़ दिया | शिक्षा विभागों को अन्य सरकारी कार्यक्रमों के प्रभार व दायित्व दिए जाने से भी शिक्षा के व्यापक प्रचार – प्रसार पर असर पड़ा जिसके  फलस्वरूप शिक्षा संस्थान शिक्षा के केंद्र न होकर सरकारी कार्यक्रमों के संचालन केंद्र होकर रह गए और शिक्षा के उद्देश्य  एवं  नैतिक मूल्य कहीं गम हो गए |
            शिक्षकों का अभाव या कह सकते हैं एक शिक्षक एक प्राथमिक विद्यालय को संचालित करे तो वहां शिक्षा की गुणवत्ता की केवल कल्पना मात्र ही की जा सकती है  यथार्थ में यह संभव नहीं | जनगणना, पल्स पोलियो, चुनाव जैसे सरकारी कार्यक्रमों ने शिक्षकों एवं शिक्षा के महत्त्व को कम किया |
आध्यात्म की परिभाषा :- आध्यात्म को दार्शनिकों एवं शिक्षाविदों ने अपने अनुसार अलग- अलग रूप में इसे पारिभाषित किया है | कुछ परिभाषाएं इस प्रकार है :-
स्वामी विवेकानंद :-   शिक्षा का अर्थ है पूर्णता की अभिव्यक्ति और आध्यात्म का अर्थ है आत्मा की अभिव्यक्ति |
एल्बर्ट आइन्स्टीन :- आध्यात्म उस असीमित सर्वोपरि आत्मा की विनम्र स्तुति है |
बेकन :- आध्यात्म मनुष्य को पूर्ण बनाता है , तर्क उसे प्रयुत्पन्न बनाता है और लेखन उसमे पूर्णता लाता है |
स्वामी विवेकानंद :- अपनी आत्मा का आह्वान करो और देवत्व प्रदर्शित करो अपने बच्चों को सिखाओ कि आत्मा दिव्य है और आध्यात्म, सकारात्मक है , नकारात्मक प्रलाप नहीं |
डेविड लिविंगस्टोन :- शिक्षा के कई कार्य हैं – ज्ञान को आध्यात्म से जोड़ना , बुद्धि का विकास करना, संबंधों को बढ़ाना और सभ्यता के सम्बन्ध में आध्यात्म की जानकारी देना |
एकहार्ट :-  आत्मा को यदि नापना है तो ईश्वर से नापना चाहिए, क्योंकि ईश्वर का धरातल और आत्मा का धरातल एक ही है |
सेंट केथेरीन :-  मेरी आत्मा ईश्वर है | अपने ईश्वर के सिवा मैं किसी और को नहीं मानती हूँ |
            हमारे महापुरुषों ने आध्यात्म के विषय में अपने- अपने विचार दिए हैं | आध्यात्म के विषय में सभी विचार एक से ही हैं | उनके विचारों में कहीं भी मतभेद नज़र नहीं आता है | यह भी विडम्बना ही है कि हम उनके विचारों को क्यों नहीं समझते ? हमारी क्रियाकलापों में कोई तो नियंता होनी ही चाहिए | वह नियंता आध्यात्म के सिवाय और कोई नहीं |
      इस प्रकार महापुरुषों ने आत्मा को परब्रह्म , सत्य, अविनाशी बताया है  | यही आध्यात्म भावनात्मक आस्था के रूप में हमारे सामने आती है | आध्यात्म तो मानव को मानव से जोड़ता है, तोड़ता नहीं | आज तो लोगों ने आध्यात्म को मजहबों की दीवारों में कैद कर दिया है |
आध्यात्मिक शिक्षा का प्रथम चरण :-
आध्यात्मिक शिक्षा का प्रथम चरण बच्चे के जीवनकाल में उसके अपने घर से हे आरम्भ होता है  जब बच्चे के माँ - बाप बच्चे को धार्मिकता के साथ – साथ सामाजिकता और आध्यात्मिकता का ज्ञान प्रदान करते हैं | ये सब  दैनिक जीवन की गतिविधियों से होकर गुजरता है जब बच्चे को मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारा या चर्च ले जाकर उसमे परमात्मा के प्रति विशवास पैदा किया जाता है उसमे धर्म के प्रति श्रद्धा और गरीबों के प्रति सहृदयता का भाव जगाकर उसे सामाजिक प्राणी बनने की और प्रेरित किया जाता है |
आध्यात्मिक शिक्षा का दूसरा चरण :-
इस चरण में बच्चा घर से बाहर जाकर विद्यालय, गुरुकुल आदि में अपने गुरुओं व शिक्षकों के सानिध्य में आध्यात्मिक ज्ञान की और मुखरित किया जाता है | | उसे अच्छे – बुरे का ज्ञान देने के साथ – साथ , मानवता , दूसरों के प्रति सहृदयता का पाठ, धार्मिकता का ज्ञान और स्वयं को किस तरह आध्यात्मिक बनाया जाए इस और अग्रसर किया जाता है | ये सब दैनिक जीवन की गतिविधियों को स्वयं संचालित व नियंत्रित करके किया जाता है |
                  देश – विदेश में लोगों के दिलों में राज कर रहीं महान विभूतियों के जीवन दर्शन से बच्चों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है | महान विभूतियों के स्वयं के बाल्यकाल व संयोजित जीवन प्रक्रिया से बच्चों को परिचित कराकर उनमे भी उन्हीं गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है | साथ ही उनके भीतर नेतृत्व की भावना को बल देने का प्रयास किया जाता है | जिससे भविष्य में ये बच्चे समाज व देश का कुशल नेतृत्व कर सकें |  राष्ट्रप्रम की भावना , सामाजिकता का विकास जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बच्चों को जागृत करना, शिक्षण संस्थाओं का प्रथम उद्देश्य हो जाता है | यह दूसरा चरण बच्चों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है | इस दूसरे चरण के माध्यम से साम्प्रदायि सदभाव को बल देने का पूर्ण प्रयास किया जाता है | रिश्तों की महत्ता, सामाजिक बन्धनों का जीवन में महत्त्व, ये विचार मानव को मानव होने का ज्ञान कराते हैं |
                        शिक्षा को संस्कार मानकर जीवन का अनिवार्य अंग बनाना प्रत्येक छात्र का उद्देश्य होना चाहिए | सार्थक जीवन सार्थक जीवन की नीव का निर्माण शिक्षा के द्वार से होकर गुजरता है | मनुष्य को मनुष्य होने का बोध कराना शिक्षा का ध्येय होना चाहिए | आदर्शों का निर्माण और मूल्यों की प्राप्ति केवल शिक्षा द्वारा ही संभव है |

आध्यात्म और चरित्र निर्माण के बीच सम्बन्ध :-
सदाचरण मनुष्य के जीवन का सर्वश्रेष्ठ आभूषण माना जाता है | जिस व्यक्ति के व्यवहार में मानवता , अहिंसा , चिंतन-मनन , करुना, दया, ध्यान ,न्याय और प्रेम आदि गुण समा जाते हैं वह सर्वश्रेष्ठ की संज्ञा प्राप्त करता है | आध्यात्मिकता से परिपूर्ण मानव में मुख्यतः जो गुण देखने में आते हैं वे हैं :- बलिदान, त्याग, प्रज्ञा, चिंतन, धर्मपरायणता, आदर्शवादिता , लोकातीत अनुभूति , मोक्ष और मुक्ति के प्रति आकर्षण | ये सभी गुण आध्यात्मिक मूल्यों के सर्वश्रेष्ठ अलंकरण माने जाते हैं | नैतिकता और आध्यात्मिकता दोनों में समन्वय और संयोजन का परिणाम होता है संस्कृति का अभ्युदय |
                  इस भौतिकवादी युग में जो शिक्षा का मूल उद्देश्य कहीं दूर स्वयं के अस्तित्व को खोज रहा है | आज के लालची और भौतिकवादी युग में आध्यात्मिकता की बातें करना बेमानी है | भौतिक साधनों से संपन्न जीवन में सुख की खोज करता मानव स्वयं को पथभ्रष्ट करने से रोक नहीं पाता |
स्वामी विवेकानंद के अनुसार “ व्यक्ति के भीतर निहित शक्तियों से उसका परिचय करना शिक्षा का सर्वोत्तम लक्ष्य होता है और यही शिक्षा का उद्देश्य भी है | “
आज शिक्षा का वातावरण पेशेवर हो गया है मूल्यों की उपेक्षा करना इसका स्वभाव हो गया है |

आध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप :-
आध्यात्मिकता की अनुभूति बंद कमरे की चाहरदीवारी में नहीं की जा सकती | इसे खुले आसमान की शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है अर्थात मनुष्य अपने भीतर विद्यमान धार्मिकता को सीमित न कर उसे बाहरी विश्व से जोड़े तो आध्यात्मिकता की अनुभूति से जीवन सुखी हो जाएगा | प्रेम बांटकर  ही प्रेम की अनुभूति की जा सकती है | आध्यात्मिकता स्वयं को तो मुक्ति का मार्ग बनाती ही साथ ही इस विचार को जब लोगों की बीच बांटा जाता इसे प्रचारित व प्रसारित किया जाता है तो एक स्वस्थ समाज, एक स्वस्थ सामाजिक परिवेश की कल्पना की जा सकती है | जीवन का वह व्यवहार जो मानव को मानव होने का आभाष कराये, उसके माध्यम से दूसरे लोगों को भी सदव्यवहार की ओर प्रेरित करे | इस भौतिक युग से बाहर निकाल उस युग में प्रवेश कराये कहाँ केवल शांति ही शांति विद्यमान हो | एक ऐसा अदभुत एहसास जो मनुष्य को उसके मानव होने के कर्तव्य का भान कराये | हम आध्यात्मिकता के अलंकरण से उसे विभूषित करते हैं | आंतरिक शक्ति व ऊर्जा का विकास ही शिक्षा प्रणाली का ध्येय होना चाहिए ताकि एक स्वस्थ , सुन्दर , परिपक्व समाज की कल्पना को साकार किया जा सके |

शारीरिक व्यायाम :-  
तन से ही सब कुछ है | एक स्वस्थ तन से ही सभी कार्यकलापों को सुचारू रूप से संपन्न किया जा सकता है | स्वस्थ तन का मन पर विशेष प्रभाव पड़ता है | शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम में इस बात पर विशेष बल दिया जाना चाहिए कि बच्चों को शारीरिक स्तर पर किस तरह से ऊर्जावान बनाया जा सकता है | इस विषय में योग को एक अनिवार्य विषय के तौर पर शिक्षा प्रणाली का अहम् हिस्सा बनाया जाना चाहिए ताकि बच्चों को इसका पूरा – पूरा लाभ मिल सके | योगा के माध्यम से मानसिक संतुलन बनाया जा सकता है इसके लिए व्यायाम, आसन, ध्यान एवं चिंतन प्रक्रिया को शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाए | स्वस्थ मन और स्वस्थ तन देश व समाज के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं |

आध्यात्मिक विचारों की पूँजी का मातृभाषा के माध्यम से आचमन :-
बच्चा जिस परिवेश , संस्कृति व संस्कारों के बीच पलता है वहां के परिवेश में स्वयं को स्थापित करने के लिए मातृभाषा का ज्ञान होना अतिआवश्यक है | हमारी अपनी संस्कृति व संस्कारों को आगे बढ़ाना हमारा धार्मिक व सामाजिक कर्तव्य होता है | इस हेतु बच्चों को सर्वप्रथम मातृभाषा की और आकर्षित करने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि  बड़े होकर वह अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक, व सामाजिक पूंजी का वेदों, पुरानों व अन्य धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से आचमन कर सके और अपना आध्यात्मिक विकास कर सके और स्वयं को समाज एक पूर्ण मानव के रूप में स्थापित कर सके |
                  आध्यात्मिक ज्ञान से बच्चा स्वयं को अलंकृत व विभूषित कर इस स्वस्थ विचारों को दुनिया तक पहुंचा सकता है और राष्ट्रहित में भी अपना बहुमूल्य योगदान दे सकता है |

आध्यात्मिकता में दिन- प्रतिदिन होता ह्रास चिंता का विषय :-
मनुष्य ने पाश्चात्य सभ्यता के प्रलोभन व प्रभाव में आकर स्वयं को धार्मिकता , सामाजिकता से एवं आध्यात्मिकता से परे कर  स्वयं को जिस दिन आधुनिकता के दौर में ढालना शुरू किया तब से ही उसके मानव मूल्यों का ह्रास होना आरम्भ हो गया | पिछले तीन सौ वर्षों में दुनिया पूरी तरह बदल गयी | विचारों की दिशा भ्रमित हो गयी | वैज्ञानिक विचारों का बोलबाला हो गया | प्रत्येक धार्मिक , आध्यात्मिक व सामाजिक क्रियाओं को वैज्ञानिकता के तराजू में तौल कर देखा जाने लगा | धार्मिक विश्वास पर अंधविश्वास की काली छाया का प्रकोप हो गया | आज जिन लक्षणों का ह्रास हम देखते हैं उनमे सौन्दर्य बोध, गुणवत्ता, संवेदनायें, अनुभूतियाँ, आत्म चेतना, अंतर्बोध आदि प्रमुख हैं |
            मानव के वैज्ञानिक विचारों के प्रति विशवास, भौतिकवाद के प्रति आस्था ने मानव को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां मानव मूल्यों में दिन- प्रतिदिन होता ह्रास चिंता का विषय हो गया है | आज मानव अपनी उन भूलों के लिए स्वयं को माफ़ नहीं कर पा रहा है | साथ ही वह इस स्थिति में आ गया है जहां से वह चाहकर भी स्वयं को  पुनः स्थापित कर पाने में असमर्थ हो रहा है |  जीवन में रोज की भागमभाग , सुविधाओं का अम्बार लगाने का अनैतिक प्रयास , स्वयं को समाज से , धर्म से , संस्कृति से दूर करता मानव , स्वयं के अस्तित्व को झुठला रहा है | वह यह भूल गया है कि उस परमपूज्य परमात्मा ने इस धरती पर उसे किस प्रयोजन के साथ भेजा है | स्वयं को जानना, स्वयं के होने का प्रयोजन, स्वयं की धार्मिक व सामाजिक , सांस्कृतिक आवश्यकतायें आदि विषय उसके लिए कोई मायने या महत्त्व नहीं रखते | शक्ति और अर्थ के मद में चूर मानव आध्यात्मिक शक्ति से दूर हो एक जानवर की भांति यहाँ- वहां विचार रहा है | ये सभी कारण आध्यात्मिकता की राह में रोड़े बनकर खड़े  हो जाते हैं |

सत्यम – शिवम् – सुन्दरम के प्रति होता मोहभंग :-
एक समय वह था जब भारत भूमि पर सत्य का बोलबाला था गुरुकुल बच्चों को सत्यमार्ग पर प्रस्थित करने के  प्रेरणा केंद्र थे | बच्चों में सत्य, अहिंसा , विनम्रता, शिष्टता , दूसरों के प्रति मानवीय विचार, उदारता , क्षमा आदि गुणों का संचार किया जाता था | मानव को मानव बने रहने की प्रेरणा दी जाती थी | सांस्कृतिकता , धार्मिकता, सामाजिकता के साथ – साथ आध्यात्मिकता के गुणों से बच्चों को सिंचित, परिपूर्ण व अलंकृत किया जाता था ताकि वे एक स्वस्थ समाज की स्थापना में अपना योगदान दे सकें |
                  वर्तमान शिक्षा प्रणाली में भौतिकवाद को तो स्थान है किन्तु आध्यात्मिकता को  कोई महत्त्व नहीं दिया गया जिसके परिणामस्वरूप समाज में विषम परिस्थिति का निर्माण हो गया है | सत्य से होता मोहभंग आज सत्यम-शिवम्-सुन्दरम की वर्तमान आवश्यकता से हमें परे ले जाता हुआ हमें पूर्ण मानव नहीं रहने देता | सत्यम-शिवम्-सुन्दरम के अभाव में स्वस्थ समाज की कल्पना करना असंभव है | जब तक मानव, मानव होने के विचार से ओत-प्रोत रहता है तभी तक मानव के कल्याण , उसके मोक्ष की कल्पना की जा सकती है | स्वयं को भौतिक दुनिया में भटकाकर हम सुसंस्कृत समाज की कल्पना नहीं कर सकते | अतः “सत्यम-शिवम्-सुन्दरम” से जुड़े रहना और स्वयं को उसके प्रति समर्पित करना अतिआवश्यक है | ये सारे गुण बच्चों में नैतिक शिक्षा के माध्यम से दिए जा सकते हैं |

आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्ति की अवस्था एवं साधन :-
आध्यात्मिक शिक्षा का शुभारंभ घर से आरम्भ होता है जब माँ अपने बच्चे को देवालय, मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारा, चर्च आदि स्थलों का भ्रमण कराती है साथ ही बच्चे को यह एहसास कराती है कि एक ऐसा भी लोक है और ऐसी शक्ति है जिसे हम परमात्मा, खुदा, जीसस , सच्चे बादशाह आदि की संज्ञा देते हैं | और जो सर्वजगत को संचालित करती है | उस शक्ति की कृपा पाकर स्वयं को पूर्ण करना, उस शक्ति के द्वारा दिए गए सत्मार्ग पर चलना ही हमारी वास्तविक नियति है | स्वयं को समझना, आत्मा को समझना, परमात्मा को समझना ही जीवन का ध्येय होता है | यही आध्यात्म है |
                  यह आध्यात्म मानव की उत्पत्ति से जुड़े सिधान्तों . उसके प्रयोजनों, परिणामों, विभिन्न दर्शनों का उद्भव, नैतिकता, मान – सम्मान, मोक्ष, गति, ललित कलाएं, भक्ति व वेड ग्रंथों में समाहित सत्य व सदविचारों के मार्ग से होकर गुजरता है  | सभी धर्मों में विद्यमान धार्मिक ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य मानव को मोक्ष की प्राप्ति कराना है | उसे यह केवल आध्यात्म के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है |
               घर से निकलते हे यह जिम्मेदारी शिक्षण संस्थाओं की हो जाती है कि वे अपूर्ण विचारों को पूर्णता प्रदान करें | अपूर्ण मानव को पूर्ण मानव बनाने की और अग्रेषित कर सकें | उनमे मूल्यों का संचार कर सकें ताकि वह स्वयं को एक शुद्ध आत्मा के रूप में स्थापित कर देश व समाज के पक्ष मे चिंतन कर सके |
                  आध्यात्म वास्तविक शांति प्राप्ति का एक प्रमुख साधन है | वर्तमान भौतिवादी युग से बाहर निकलकर मानव को आध्यात्मिक युग में प्रवेश कराना आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है | आध्यात्म मानसिक शांति तो देता ही है साथ ही यह आध्यात्मिक ज्ञान शून्य छात्रों का बौद्धिक व मानसिक विकास भी करता है जो भूगोल , विज्ञान, इतिहास, मानविकी आदि विषयों के अध्ययन से उपजता है | ये विषय छात्रों को भौतिकवादी युग में प्रवेश तो कराते हैं किन्तु अधूरे ज्ञान के साथ या आध्यात्मिक रूप से ज्ञान शून्यछात्रों को अंत में आध्यात्म की शरण में प्रस्थान करना ही होता है |
आध्यात्म मानव को जब पूर्णता प्रदान करता है , उसे स्वयं से स्वयं का बोध करता है तब वह सीमा में बंधा नहीं रहता | वह शांति के मार्ग पर अग्रसर होता है | उसके मन में एके ही विचार जोर मारता है , वह है “ वसुधैव कुटुम्बकम ”| आध्यात्म उसे विश्व शान्ति के प्रचारक के रूप में स्थापित करता है |

आध्यात्म रूढ़ियों और  का अंधविश्वाशों प्रबल विरोधी :-
आध्यात्मिकता की छात्र छाया में आ जाने के बाद मनुष्य के जीवन में रूढ़ियाँ व अंधविश्वाशों का कोई स्थान नहीं होता | मनुष्य स्वयं को एवं समाज को “ सत्यम-शिवम्-सुन्दरम “ की और ले जाने का प्रयास करता है | यह उसकी उन्नति का मुख्य द्वार साबित होता है | मुख्य रूप से भारतीय दर्शन, धर्म के मुख्य दस लक्षणों की चर्चा करता है धैर्य, क्षमा, दम , अस्तेय, पवित्रता, इंद्रिय निग्रह , ज्ञान, विवेक, सत्य और अक्रोध | इस सबके सहारे ही मानव पूर्णता की और अग्रसर होता है | श्रेष्ठ कर्म करने से ही ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है न कि बुरे कर्मों को कर्मे से |
                  आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते समय छात्रों को चाहिए कि वे धैर्य रखें , आत्म संयम रखें, क्षमा का सहारा लें | मन को संयमित रखें, इन्द्रियों को वश में रखें, विवेकशील रहें, मिल-जुलकर रहें, मिल-जुलकर प्रयास करें, और मिल-जुलकर चलने से ; सभी की एक सी भावनाएं हों, ये सब आध्यात्मिकता के माध्यम से ही संभव है | देश की उन्नति , विश्व शांति के प्रयास हेतु आध्यात्मिकता का आचमन अतिआवश्यक है | इसी से हम
“ वसुधैव कुटुम्बकम “ की भावना को चरितार्थ कर सकते हैं |

आध्यात्म और शिक्षा में अंतर्संबंध:-
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में निहित गुणों से उसे अवगत कराना है साथ ही व्यक्ति को सम्पूर्ण मानव बनाना, उसे सम्पूर्णता की और अग्रसर करना, उसे सुनियोजित के साथ – साथ उसे स्वस्थ बनाना , स्वावलंबी बनाना और उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य है | प्राचीन काल में शिक्षा को मुक्ति मार्ग के रूप में संज्ञा दी जाती थी | वर्तमान में यह स्वयं को जीवित बनाए रखने और भौतिक संसाधनों के सुख की प्राप्ति का साधन मात्र हो गयी है | इसका मानव की मुक्ति से कोई सरोकार नहीं है | प्राचीन विचारकों एवं नीतियों ने शिक्षा को एक साधन के रूप में प्रस्तुत किया जो मानव दुर्बलताओं का नाश करती है उसे स्थिरता प्रदान करती है एवं उसमे व्याप्त अज्ञान को दूर करती है | शिक्षा अपने उद्देश्यों को केवल अध्यात्म से ही पूरा कर सकती है | आध्यात्म कि संकल्पना के बिना शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करना असंभव है |

आध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता :-

वर्तमान सामाजिक परिवेश ने हमें एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां हम आध्यात्म की जीवन में भूमिका के बारे में चिंतन करने लगे हैं | जिस प्रकार से युवा पीढ़ी भौतिक संसाधनों के पीछे भाग रही है उसने उसे स्वयं के अस्तित्व की पहचान से कोसों दूर कर दिया है | मानव जीवन का क्या उद्देश्य होना चाहिए ? हमें अपना उद्धार क्यों करना चाहिए ? क्या यहाँ हम विलासितापूर्ण जीवन बिताने के लिए ही आये हैं? या फिर हमें कुछ और करना है , कुछ और पाना है | क्या दर्शन की हमारे जीवन में कोई उपयोगिता है ? वेदों का प्रादुर्भाव किस कारण से हुआ है ? आत्मा का क्या रहस्य है ? परमात्मा क्या है ? ब्रह्म आनंद क्या है ? स्वर्ग क्या है ? आदि-आदि विचारों को हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए न कि क्षणिक सुखों के पीछे भागकर स्वयं के अस्तित्व को खतरे में डालना चाहिए | पञ्च तत्वों का जीवन में महत्त्व समझना अनिवार्य  है | ब्रह्माण्ड की संरचना व इसका निर्माण किसने किया और क्यों किया | साथ ही संयम, शांतिपूर्ण जीवन, संतोषजनक जीवन, सामान्य जीवन, अनुशासित जीवन की कल्पना ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए | यूं ही जानवरों की भांति हम यहाँ – वहां विचरण न करें | जीवन को समझें और जीवन मेके साथ न्याय करें |

आध्यात्म शिक्षा की पाठ्क्रम रूपरेखा :-
आध्यात्म शिक्षा को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता है :-
1. सैद्धांतिक
2. व्यावहारिक

सैद्धांतिक पक्ष :-  सभी धर्मों की मान्यताओनौर वैज्ञानिक खोजों के सम्मिलित रूप में इसकी विषयवस्तु इस प्रकार संयोजित की जा सकती है :-
1. आत्मा क्या है ?
2. विभिन्न धार्मिक मान्यताओं की सच्चाई |
3. ईश्वर क्या है ?
4. विभिन्न आध्यात्मिक  विभूतियों का जीवन परिचय एवं योगदान |
5. हमारा अस्तित्व और व्यक्तित्व |
6. आध्यात्मिक चमत्कारों का रहस्य |
7. हमारा कर्तव्य |
8. उत्तम दिनचर्या एवं सही जीवन जीने का सूत्र |
9. सात्विक आहार – विहार की उपादेयता |
10.            हमारा जीवन लक्ष्य |
11.            प्राणायाम, कीर्तन. भजन, जप, ध्यान , उपवास आदि का वैज्ञानिक महत्त्व |
12.            नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य |
13.            संसार क्या है |
14.            योग साधना एवं उसके प्रकार |
15.            मोक्ष क्या है |
16.            भूत – प्रेत आदि सत्य हैं या नहीं |
17.            धार्मिक मान्यताओं एवं वैज्ञानिक खोजों के मंथन से निकला वास्तविक जीवन सत्य |

व्यावहारिक पक्ष :-  व्यावहारिक पक्ष में उन प्रयोगात्मक अभ्याससों को कराया जाये जिससे बच्चों का आध्यात्मिक विकास हो  | वे इस प्रकार हैं :-
1. प्रार्थना
2. योगासन
3. मंत्र जाप
4. प्राणायाम
5. ध्यान साधना
6. मौन अभ्यास
7. नाम संकीर्तन
8. सभी धर्मों के सद्ग्रंथों का स्वाध्याय
9. वैदिक मन्त्रों , श्लोकों तथा भिन्न- भिन्न धर्मों के सुन्दर भजनों का गायन एवं श्रवण
10.            प्रश्नोत्तर एवं समस्या समाधान
11.            विभिन्न अनुभूतियों का तुलनात्मक अध्ययन एवं विश्लेषण
12.            आध्यात्मिक विषयों पर व्याख्यान, लेखन एवं चित्रांकन
13.            समाज सेवा कार्य जैसे –दीन दुखी , गरीबों, बीमारों,अपाहिजों,वृद्ध, अनाथों के कल्याण के लिए कुछ करना, उनकी सेवा तथा सहायता करना |
14.            पर्यावरण स्वच्छता कार्यक्रम आदि |
इन सबमे महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी है कि आध्यात्म शिक्षा किसी धर्म विशेष का प्रचार माध्यम न बन जाए और आध्यात्म पढ़ने वाले बच्चे पलायनवादी सन्यासी न बन जाएँ | हमें एक ऐसा भविष्य बनाना है जिसमे कर्तव्यनिष्ठ, बलिदानी, दृढ़निश्चयी , योगी जैसी चरित्र समाज में मौजूद हों |

निष्कर्ष :-  
उपरोक्त सभी बिंदुओं का अध्ययन करने के पश्चात हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आध्यात्म शिक्षा का अनिवार्य अंग है | इसके बिना शिक्षा अधूरी है | विद्यालय ऐसे शिक्षा संस्थान हैं जहां भावी नागरिक तैयार किया जाते हैं जो देश के प्रति समर्पित होकर राष्ट्र सेवा कर सकें | अतएव हम शिक्षकों का कर्तव्य है कि इस संस्थान में बच्चों को आदर्श नागरिक बनाया जाए जो राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर स्थापित करें |  
इस लेख को पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया |